छुट्टा जानवर : कौन जिम्मेदार

हमारे देश में गोधन को एक प्रमुख धन माना गया है।
अगर हम चालीस साल पीछे मुड़कर देखें तो गोधन हमारी कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती थी। हर आदमी के पास दो चार गाय भैंस और बैलों की एक बढ़िया सी जोड़ी होती थी। बाहर से आने वाले लोग बैलों की जोड़ी को देखकर घर की माली हालत का अनुमान लगा लेते थे। जब घर में किसी बच्चे की शादी तय होती थी तो शादी कराने वाले अगुआ (बिचौलिया) लोग खेत को बीघों में न बताकर कहते थे कि "भइया उनके पास दो बैल या चार बैल की सीर है"। 

पशु हमारे लिए बहुत ही उपयोगी होते थे। पशुओं का दूध और मल मूत्र तक हमारी हर आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। लोग अपने घर के सदस्यों के अनुसार गाय, भैंस और बैलों को पालते थे। गाय और भैंसों से मिलने वाले दूध से अपनी आवश्यकतानुसार दही, मट्ठा और घी बनाते थे। उनके गोबर से खाद और सर्दियों के मौसम में उपला बनाते थे। गोबर की खाद हमारे लिए अनाज उगाती थी और उपले से साल भर भोजन बनता था। पशुओं पर आधारित एक श्रृंखला काम करती थी।

दिन भर उपले की आग पर दूध धीमी आंच पर गर्म होता रहता था। घर में छोटे बच्चों को उनकी दादियां बार बार दूध पिलाती रहती थीं। घर के हर सदस्य को सुबह शाम खाने के साथ गिलास भर  दूध मिलता था। कोई रिश्तेदार आ जाने पर उसके सामने लोटे में गुड़ डालकर दूध रख दिया जाता था।  जिन लोगों के यहां आवश्यकता से ज्यादा दूध होता था वह लोग दूध, दही और मट्ठे के रूप में बेंच देते थे। उस समय गांवों में पैसा न के बराबर होता था। दही और मट्ठा तो अनाज से तौलकर मिलता था। दूध, दही और छाछ का यह विनिमय गांव का एक प्रमुख रोजगार और आय का साधन था। दूध बेचकर लोग अपने घर की आर्थिक आवश्यकता को पूरा करते थे।

गाय, भैंसों की उपयोगिता के कारण पूरा परिवार उनके चारे की व्यवस्था में लगा रहता होता था। प्रातः तीन चार बजे से ही लोग अपने गाय, भैंस और बैलों को खिलाने लग जाते थे क्योंकि बैलों को अंधेरे में ही खेतों की जुताई के लिए ले जाना होता था और गाय, भैंस से दूध दुहना होता था। गाय, भैंसों और उनके बच्चों से लोगों की इतनी आत्मीयता होती थी कि लोग उनका नाम उनके रंग  या गुण के अनुसार रामा, श्यामा, मकरी, मरकाही, ललकी, रामदीन, भगवानदीन रखते थे। वे अपने नाम को जानते भी थे। एक बार नाम लेकर बुलाने पर दूर खड़े या घास चर रहे जानवर अपना नाम सुनते ही अपने पालक के पास दौड़े चले आते थे।  आदमी के पास पशुओं की तीन तीन पीढ़ियां तक रहती थीं। बूढ़ा हो जाने पर भी लोग पशुओं की खूब सेवा करते थे।

समय बदला, मनुष्यों की  आबादी में तेजी से बृद्धि हुई। मनुष्य अपनी बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के लिए जंगल और चारागाह की जमीन को जोतकर खेत बनाने लगा। सदियों से बेकार पड़ी जमीन को जोतने के लिए लोग ट्रेक्टर ले आये। बस यहीं से पशुधन की आवश्यकता और उपयोगिता को ग्रहण लगना शुरू हो गया। कृषि क्षेत्र में मशीनों के आ जाने से उत्पादन में खूब बृद्धि हुई । पहले देश जहां गेंहू, चावल जैसे अनाज भी आयात करता था, वहीं अब निर्यात करने लगा लेकिन पशुओं की आवश्यकता घटने लगी।

 गांव के लोग आवश्यकता बढ़ने  के कारण शहरों की ओर निकल पड़े। शहरों की तरफ बढ़ते पलायन का मुख्य कारण बढ़ती आवश्यकता के साथ बढ़ती मंहगाई  और शहरी चकाचौंध थी । शहरों की चकाचौंध और गांवों में कम होती मानव शक्ति के कारण संयुक्त परिवारों का टूटना शुरू हो गया। एकाकी परिवार का चलन बढ़ गया। जहां एक एक परिवार में चार पांच भाइयों के परिवार को मिलाकर अठारह बीस लोग होते थे, अब वे घटकर तीन या चार हो गये। इसलिए लोगों ने पशुपालन बंद कर दिया।  

अब गांवो से गोधूलि बेला में पशुओं के चलने से उड़ने वाली धूलि गायब हो चुकी है। खेतों से गोबर की खाद का रिश्ता टूट चुका है। वर्तमान समय में गांवों में भी  पशुपालन न के बराबर है। अब लोगों के घरों में कहीं कहीं इक्का-दुक्का जानवर ही दिखायी पड़ते हैं। चरागाहों के विलुप्त होने, जलाने के लिए उपलों की आवश्यकता न होने तथा खेती के लिए बैलों की उपयोगिता समाप्त हो जाने के कारण जो लोग गायों को पाल रहे हैं वह गायों के बछड़ों और बूढ़ी गायों को अपने घर से भगा रहे हैं। इसीलिए छुट्टा जानवर आज समस्या बन गये हैं।

छुट्टा जानवर की समस्या ग्रामीण जनता की खुद खड़ी की गई समस्या है। जो लोग अपने फायदे के लिए गायों को पाल रहे है, वह उनके बछड़ों को दूध छोड़ते ही  भगा दे रहे हैं।  घरों से भगाये जाने के बाद यही बछड़े समूह बनाकर रहना शुरू कर देते हैं। चारे की खोज में इनका दल जिधर निकलता है उधर पूरी फसल साफ हो जाती है। महंगे बीज, खाद और सिंचाई से उपजायी फसल कुछ ही क्षणों में तबाह हो जाती है। जब किसान अपनी बर्बाद फसल को देखता है तो उसके बच्चों की पढ़ाई, बुजुर्ग माता-पिता की दवाई और बच्चों की शादी के सपने छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। 

छुट्टा जानवरों से निजात पाने का एक तरीका यह है कि ऐसे लोगों का बहिष्कार किया जाय जो लोग बूढ़ी गायों और बछड़ों को घर से भगा रहे हैं। लेकिन अब बहिष्कार शब्द खुद बेअर्थ हो गया है क्योंकि दलीय राजनीति गांव की समरसता को बर्बाद कर चुकी है। लोग हर बात दल, जाति और धर्म देखकर करने लगे हैं। गांवों की एकता अब बीते जमाने की बात हो चुकी है इसलिए लोगों का सामिजि बहिष्कार करना मुश्किल काम है।

 सरकार ने गौशालाओं का निर्माण कर समस्या का निदान खोजने की कोशिश तो की है लेकिन गौशालाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है, इसमें जानवर भूख प्यास मर रहे हैं।  यदि पशुओं के लिए आधार कार्ड जैसा कार्ड या डिजिटल चिप की व्यवस्था शुरू की जाए तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इस कार्ड / डिजिटल चिप में पशु और पशु स्वामी का पूरा ब्यौरा संचित हो ताकि पशु को घर से भगाने पर इसके स्वामी का पता लगाया जा सके। इसको प्रभावी बनाने के लिए पशुपालन विभाग को जिम्मेदार बनाया जाय। ग्राम पंचायत स्तर पर प्रधानों को अपनी ग्रामसभा में पशुओं की गणना और उनके डाटा पंजीयन की जिम्मेदारी दी जाए। पशुओं के जन्म मृत्यु का लेखा जोखा रखने में ब्लाक स्तर पर पशु चिकित्सा अधिकारी की मदद ली जाए और राज्य स्तर पर इसकी निगरानी हो तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

इन पशुओं के अलावा फसलों को चट कर जाने में नील गायों का का भी अहम रोल है। इनकी संख्या में भी भारी इजाफा हुआ है। इनको न तो पकड़ा जा सकता है और न ही पाला जा सकता है। गांवो की तरफ इनके रूख का मुख्य कारण है जंगलों और चरागाहों की जमीन का विलुप्त होना है। पहले यह नदियों के किनारे ही पानी और चारे की उपलब्धता के कारण बहुतायत संख्या में पाये जाते थे लेकिन जब से नदियों के किनारे खाली पड़ी जमीन पर लोगों ने प्रशासन की मिलीभगत से कब्जा जमा लिया तब से यह खेतों की ओर चल पड़े हैं। 

आखिर यह जानवर जाएं तो कहां जाएं। हमने इनके हिस्से के भोजन और पानी पर बलात कब्जा जमा लिया है। इन बेजुबान जानवरों को इनका हक दिलाने के लिए सरकार को ही आगे आना होगा।
लेकिन सरकारें अपने ही तंत्र और वोट की राजनीति के चलते ऐसे मुद्दों को हाथ में लेकर इनके साथ न्याय करने से कतराती हैं। इसलिए इस समस्या से जहां एक ओर किसान परेशान है तो दूसरी ओर यह बेजुबान जानवर भी परेशान हैं, लेकिन इस समस्या के लिए हम स्वयं और सरकार दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं।
 


 

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